Skip to main content

लंच बॉक्स

जब तुम टिफिन का डब्बा पैक करके
मुझसे कहते हो घर जल्दी आना
और फिर खुद ही वो टिफिन
मेरे बैग के एक कोने में रख देती हो।
भूल जाने की मेरी आदत पुरानी है,
ये आदत भी तुम्हारी दी हुई है,
भूलने के बाद तुम्हारी डांट खाना
फिर तुम्हारे चेहरे पर वो फिक्र नजर आना
नाराज़गी में छिपा तुम्हारा वो प्रेम
मेरे मनाने पर तुम्हरा वो आंखें दिखाना
मुझे भूल जाने पर मजबूर करती है।
"सॉरी, कल से नहीं भूलूंगा"
ये सुन कर तुम मुस्कुरा देती हो,
तुम जानती हो कल फिर यही होगा
कल मैं फिर कुछ भूलूंगा
तुम फिर कल थोड़ा और प्यार
शब्दों में कैद करके मुझपर आजाद कर दोगे।
और ये सिलसिला यूंही
दिन बा दिन चलता रहेगा
उस दिन तक जब हम दोनों बैठे होंगे
एक आराम कुर्सी पर
जो हौले हौले ऊपर नीचे करेगी
हमारी यादों की लहरों पर,
और हम आंखें मूंदे देख रहे होंगे
एक दूसरे को, लहरों पर नाचते हुए
चलेंगे हाथ में हाथ थामे
एक नए सफर पर दूसरे छोर तक।
और वो टिफिन, किनारे पर फैली
मखमली रेत पर पड़े एक
संदूक के कोने में रखी होगी।
इस इंतजार में कि फिर से कोई
हम दोनों जैसा उस रेत पर
एक आशियां बनाएगा, प्रेम का
अंतरद्वंद में चल रहे जिरह का
स्नेह का, विरह का, विश्वास का
और फिर वो संदूक से निकल
पहुंच जाएगा किसी बैग के कोने में।

©

Comments

Popular posts from this blog

परिकल्पना - सफ़र जिंदगी का

हम एक जीवन की कल्पना करते है फिर उस परिकल्पना में रंग भरते है कुछ छोटी कुछ बड़ी आशाएं, कुछ यादें, कुछ बातें, लम्हों कि सौगातें कुछ आकांक्षायें पहलू में समेट लेते है कुछ बस एक काश में ही सिमट जाते है कुछ जिरह, कुछ विरह, कुछ जद्दोजेहद सब मिल कर स्याह बनकर कोरे पन्नों पर कुछ लिखना चाहते है, किरदार सजते है, कुछ किस्से संवरते है कुछ दाग बनकर वहीं रह जाते है। हम खुशियां समेटते है सन्नाटे छाटते है चलते है, भागते है, हांफते है, थक कर दहलीज पर बैठ जाते है सांस लेने की कवायद करते है, लड़ते है एक उम्मीद लिए आसमां में तैरते है एक तिनका पकड़ते है चांद पर बैठ जाते है कभी बादलों से उलझकर गिर जाते है और सागर की गहराइयों में खो जाते है उस शून्य में रंग सारे सफेद हो जाते है पीछे बचती है एक लकीर काले स्याह रंग की, अंधकार समेटे जो जमीं को आसमां से जोड़ती है यादों की बारिश उस लकीर को सिंचती है कुछ टहनियों को जन्म देती है जो एक आखरी सफर को छाव देते है हम चलते जाते है, अकेले उस सफर पर और कल्पनाएं, जिनमें कुछ रंग भरे थे फूल बनकर बिखरते जाते है कांटे जो पावों में छुपे थे, चुभे थे

मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं

मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं आरज़ू नहीं, कोई आबरू नहीं चमक नहीं, मैं फलक भी नहीं, दिल नहीं, मुझमें जां भी नहीं, साया नहीं, कोई साथी नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। सुबह नहीं, अब शाम नहीं सच नहीं ना कोई जूठ नई दिन भी वहीं रातें वहीं सांस वहीं, पर बातें नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। आगाज़ नहीं, अंज़ाम नहीं मैं शब्द नहीं कोई आवाज़ नहीं, किस्से नहीं, कहानी नहीं किरदार वही पर राज़ नहीं मैं कुछ नहीं मैं कोई नहीं। मैं गंगा नहीं, यमुना भी नहीं, पाप वही, अब पुण्य नहीं तीर्थ नहीं, कोई धाम नहीं पर्वत वही, पर हिमालय नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। दुश्मन नहीं पर दोस्त वही, मैं फिज़ा नहीं, रूत भी नहीं, अपना नहीं, ना गैर सही मंज़िल वही मैं रस्ता नहीं मैं कुछ नहीं मैं कोई नहीं। मैं पूरब नहीं पश्चिम नहीं सूरज वही, मैं दिशा नहीं मैं मिला नहीं, भटका भी नहीं आदमी वही कोई मुखौटा नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। Like our page on Facebook Follow us on Instagram