जब चारदीवारी खड़ी हो रही थी तो उसके हिस्से ऊपर का एक कोना आया, कहा उसे चुपचाप पड़े रहना था। नीचे फैली विविधताओं से दूर, रंग बिरंगी दुनिया से दूर उसे वहीं रहना था। चाहे फर्श मिट्टी से लीपी हो या चमक बिखेरती संगमरमर बिछी हो उसे वहीं से सब देखना था। वह नीचे नहीं आ सकता था, नीचे आते ही उसका वजूद खत्म हो जाता, वह कुछ और बन जाता। नीचे होने से चारदीवारी के भीतर की दुनिया वो बाहर गुजरने वाले सबको दिखा देता। फिर अन्दर वाले उस दुत्कारते और उसपे फिर शीशे की एक परत चढ़ा दी जाती अन्दर की दुनिया छुपाने के लिए। पर वो रौशनदान है इसलिए वो ऊपर है और उसका एक कोने में चुपचाप पड़े रहना ही उसके वजूद को सार्थक करता है। रौशनदान और किरणों के बीच हमेशा से ही एक अनोखा संबंध रहा है। दोनों एक दूसरे के पूरक है।
रौशनदान से छन कर आती हुई रौशनी केवल रौशनी नहीं होती है। वो बाहर रौशन करती किरणों से कहीं अलग कहीं दूर क्षितिज में कहीं छुपे हुए उस रौशनी के श्रोत के तेज की तरह उम्मीद के एक शीतल लौ की तरह है। एक अकेले भटकते हुए अंधरे कमरे के लिए रौशनदान भंवर के उस तिनके की तरह है जो हाथ आने पर प्राणों को निचोड़ने वाले उस भंवर से दूर एक शांत और सहलाते हुए किनारों पर ला पटकता है।
रौशन दान से आती हुई उन शीतल और प्राण दायनी किरणों को अगर आप गौर से देखेंगे तो उसमें धूल के अनगिनत कण सांस लेते और नाचते हुए दिखेंगे जो आपको कभी भी बाहर के फैले इस विशाल उजाले में नहीं नज़र आएंगे। उस रौशन दान से छन कर आती हुई रौशनी से उनका एक ख़ास रिश्ता होता है। वो नाचते उसी में है जहां किरणों की लौ उन्हें तपाती नहीं है, बल्कि उन्हें एक सुकून का एहसास दिलाती है और एक अपनेपन का भी जो बाहर फैले किरणों में नहीं है। जिस तरह रौशनदान की किरणें व्यर्थ प्रतीत होती है उसी तरह धूल के कण सूक्ष्म और व्यर्थ होते है, पर सृष्टि की सभी चीज़ों को विधाता ने उसी धूल के छोटे छोटे कणों से निर्मित किया है और जिस तरह ये कण सृष्टि के निर्माण का आधार होते है ठीक उसी तरह ये रौशन दान से आती हुई किरणें भले ही एक मद्धम और अपेक्षा कृत सूक्ष्म रौशनी का प्रतीक है परन्तु ये किरणें निर्धारित करती है, कि इस कमरे या आसरे में जीवन का संचार हो रहा है, कि यह बंद चारदीवारी सांस की लौ जलाए हुए है।
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