Skip to main content

राजा, प्रजा और किस्सा कुर्सी का

"तुम इस नगर के राजा हो, ये प्रजा तुम्हारी है, तुम्हारे नगर में क्या कुछ हो रहा है इसकी पूर्ण जानकारी तुम्हें होनी चाहिए, राजा को अपने नगर में होने वाली हर गतिविधि पर नज़रें गड़ा कर रखनी चाहिए।"

यह सुनते ही मैं खुशी से उछल पड़ा, अरे हां मैं तो राजा हूं, ये मेरी ही तो प्रजा है, ये नगर भी मेरा है, यहां होने वाली हर घटना मेरी नज़रों के समक्ष होनी चाहिए। क्या खूब कही, मुझमें भी शक्तियां है, मैं भी आदेश से सकता हूं, मेरे हर आदेश का पालन करना प्रजा के लिए अनिवार्य है। मैं बुरा बिल्कुल भी नहीं हूं तो कोई ग़लत आदेश या बिना वजह प्रजा को परेशान करना मेरा लक्ष्य नहीं है, मैं तो हर कार्य में अपनी और सबकी भलाई देखता हूं। लेकिन फिर भी राजा होने का आभास अपने आप में अनोखा है। मैं खुद को बहुत ताकतवर समझने लगा था, खुद को सबसे ऊपर देख पा रहा था। ये उल्लास के क्षण थे और मैं इसी उल्लास के आवेश में कुर्सी पर विराजमान हो गया।

तभी एक आवाज़ ने मुझे उस क्षणिक आवेश से बाहर निकाला। "अच्छा तो राजा जी थोड़ा बाहर निकल के देखें और पता करें की ये व्यक्ति कहा गायब हो गया है। अभी तो यहीं पर था लेकिन अब पता नहीं चल रहा कहा भाग गया। थोड़ा जल्दी पता करके बताने का कष्ट करें।"
मैं भी अपनी धुन में मगन था और अभी भी अपने राजा होने पर इतरा रहा था। मैं राजा हूं और यहां की हर चीज़ मेरी है।
"जी अभी गया और पता करके आया।"
इसी खुशी में में दौड़ के बाहर आ गया, कहां गया होगा वो आदमी, मैं नज़रों को बाज़ सा तेज करके चारों तरफ दौड़ा रहा था। मैं दौड़ के इधर से उधर भागता फिर रहा था। फिर अनायास ही मेरे मन में ख्याल आया, पर मैं तो राजा हूं, मैं क्यों इस आदमी को ढूंढ़ रहा हूं, मेरे सेवक कहां है, मेरे पीछे तो कोई नहीं है। और राजा को इस तरह आदेश करने वाला कौन है, उसकी इतनी हिम्मत कैसे हो गई।
मैंने गुस्से में आवाज़ लगाई, "सेवक! कहां मर गए सब के सब, अपने राजा की ज़रा भी चिंता नहीं है, इस भरी दुपहरी में मैं एक आदमी को ढूंढ़ने के लिए दौड़ रहा हूं और तुम सब आराम कर रहे हो।"
आवाज़ सुन कर भी कोई बाहर आता प्रतीत नहीं हुआ तब मैं भारी क़दमों से वापस पहुंचा, तो देखा एक आदमी सेवक सी वर्दी पहने सोया हुआ था। मैंने गुस्से से आंखें लाल करते हुए उसे उठाया, "क्यों रे, ये क्या मजाक बना रखा है? ये कोई सोने की जगह और वक़्त है क्या? और मैं काम कर रहा हूं तुम आराम फरमा रहे हो। यही संस्कार है क्या यहां के?"
उसने एक आंख खोली और हौले से होंठों को मुस्कुराने की अवस्था में ले गया जैसे कह रहा हो संस्कार मेरे जूते में, फिर बोला, "आप कौन?"
मैं फिर तिलमिलाया, "मैं यहां का राजा हूं।"
"अच्छा राजा जी, यहां तो हर कोई अपने आप को राजा समझता है।"
"अच्छा अब राजा मान ही लिया है तो इस सेवक का प्रणाम स्वीकार करना और वो उधर पानी और गिलास रखा है, लेकर पी लेना, गर्मी बहुत है तो कहीं चक्कर ना आ जाए।"
इतना कहकर वो फिर आंखें बंद करके चिर निद्रा में लीन हो गया।
मैं अभी तक आवाक सा खड़ा होकर सोच है रहा था कि ये हुआ क्या की अचानक से एक तेज आवाज मेरे कानों को चीरने लगी।
"अबे यहां खड़ा खड़ा क्या सपने देख रहा है! कोई काम बताया था तुझे, हुआ की नहीं, कहां है वो आदमी? इतना समय क्यों लग रहा है?"
पर मैं, मैं तो राजा हूं, ये मुझे इस तरह आदेश कौन दे रहा है?
मैंने भी थोड़ा अदब में जवाब दिया, "ये कोई तरीका है राजा से बात करने का! थोड़ा तो तमीज़ रखे, मर्यादा का ख्याल रखें। यहां एक भी काम लायक सेवक नहीं है तो कैसे होगा काम, मैं तो राजा हूं मैं कब्ज ऐसे छोटे काम करने लगा।"
"तमीज को रखो अपनी कमीज़ में और मर्यादा को तेल लेने भेज दो, जो काम बोला है वो करो सही से नहीं तो ये राजा की कुर्सी और तुम्हारी अकड़ दोनों गायब हो जाएगी।"
हाय, ये क्या हो रहा है! मैं तो यहां का राजा हूं, ये नगर भी मेरा है, फिर भी मुझसे ऐसा बर्ताव, यहां की हर चीज का मालिक हूं मैं तो लेकिन कोई चीज मेरी है ही नहीं, मैं सबसे ताकतवर हूं यहां लेकिन ये मुझसे भी बड़ा कौन आ गया जो राजा की कुर्सी छीनने की धमकी दे रहा है। खुद को राजा से बड़ा समझने वाला ये होता कौन है, इतनी हिम्मत कहा से आ गई मुझे धमकी देने की हिमाकत कर रहा है। शायद इसे मेरी ताकत का अंदाजा नहीं है। अभी बताता हूं इसे तो मैं।

"अरे अब पानी पिलाओगे क्या ऐसे ही सपने में खोए रहोगे। पता नहीं कहां कहां से राजा बनने चले आते है।"

मैं कुछ महसूस नहीं कर पा रहा था बस यही लगा कि पानी का एक ग्लास उठाए मेरे हाथ किसी को दे रहे थे और मुझे मेरी ताकत का एहसास करवा रहे थे। हां मैं वही, मैं तो राजा हूं।

इतने में बाहर से दौड़ती हुई एक और आवाज़ सुनाई दी, "अबे साले! तू अपने आप को राजा समझता है यहां का और तेरे इलाके से तेरी नाक के नीचे से लोग सामान चोरी कर रहे है, ईट तक उखड कर जा रही है और तू यहां आराम से खड़ा होकर पानी पी रहा है, तुझे खबर भी है कुछ, राजा बनने चला है और काम ढेले भर का भी नहीं आता है। चौकीदारी करने के लिए बिठाया है, कम से कम वो काम तो सही से कर लिया कर।"
"यही तो मैं भी इसे समझा रहा हूं, इससे अच्छा तो इसका सेवक है।"

दोनों आपस में बात कर रहे थे, शायद मेरे ही बारे में कर रहे होंगे, पर मैं तो इसी सोच में बिना किसी तिनके के डूबा का रहा था, मैं तो यहां का राजा था, ये प्रजा मेरी ही थी, ये नगर भी मेरा था।


जनता को सूचनार्थ - इस कहानी का वास्तविक जीवन से किसी प्रकार से कोई लेना देना नहीं है। अगर ऐसा है तो इसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा।

Comments

Popular posts from this blog

परिकल्पना - सफ़र जिंदगी का

हम एक जीवन की कल्पना करते है फिर उस परिकल्पना में रंग भरते है कुछ छोटी कुछ बड़ी आशाएं, कुछ यादें, कुछ बातें, लम्हों कि सौगातें कुछ आकांक्षायें पहलू में समेट लेते है कुछ बस एक काश में ही सिमट जाते है कुछ जिरह, कुछ विरह, कुछ जद्दोजेहद सब मिल कर स्याह बनकर कोरे पन्नों पर कुछ लिखना चाहते है, किरदार सजते है, कुछ किस्से संवरते है कुछ दाग बनकर वहीं रह जाते है। हम खुशियां समेटते है सन्नाटे छाटते है चलते है, भागते है, हांफते है, थक कर दहलीज पर बैठ जाते है सांस लेने की कवायद करते है, लड़ते है एक उम्मीद लिए आसमां में तैरते है एक तिनका पकड़ते है चांद पर बैठ जाते है कभी बादलों से उलझकर गिर जाते है और सागर की गहराइयों में खो जाते है उस शून्य में रंग सारे सफेद हो जाते है पीछे बचती है एक लकीर काले स्याह रंग की, अंधकार समेटे जो जमीं को आसमां से जोड़ती है यादों की बारिश उस लकीर को सिंचती है कुछ टहनियों को जन्म देती है जो एक आखरी सफर को छाव देते है हम चलते जाते है, अकेले उस सफर पर और कल्पनाएं, जिनमें कुछ रंग भरे थे फूल बनकर बिखरते जाते है कांटे जो पावों में छुपे थे, चुभे थे

लंच बॉक्स

जब तुम टिफिन का डब्बा पैक करके मुझसे कहते हो घर जल्दी आना और फिर खुद ही वो टिफिन मेरे बैग के एक कोने में रख देती हो। भूल जाने की मेरी आदत पुरानी है, ये आदत भी तुम्हारी दी हुई है, भूलने के बाद तुम्हारी डांट खाना फिर तुम्हारे चेहरे पर वो फिक्र नजर आना नाराज़गी में छिपा तुम्हारा वो प्रेम मेरे मनाने पर तुम्हरा वो आंखें दिखाना मुझे भूल जाने पर मजबूर करती है। "सॉरी, कल से नहीं भूलूंगा" ये सुन कर तुम मुस्कुरा देती हो, तुम जानती हो कल फिर यही होगा कल मैं फिर कुछ भूलूंगा तुम फिर कल थोड़ा और प्यार शब्दों में कैद करके मुझपर आजाद कर दोगे। और ये सिलसिला यूंही दिन बा दिन चलता रहेगा उस दिन तक जब हम दोनों बैठे होंगे एक आराम कुर्सी पर जो हौले हौले ऊपर नीचे करेगी हमारी यादों की लहरों पर, और हम आंखें मूंदे देख रहे होंगे एक दूसरे को, लहरों पर नाचते हुए चलेंगे हाथ में हाथ थामे एक नए सफर पर दूसरे छोर तक। और वो टिफिन, किनारे पर फैली मखमली रेत पर पड़े एक संदूक के कोने में रखी होगी। इस इंतजार में कि फिर से कोई हम दोनों जैसा उस रेत पर एक आशियां बनाएगा, प्रेम का अंतरद्व

मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं

मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं आरज़ू नहीं, कोई आबरू नहीं चमक नहीं, मैं फलक भी नहीं, दिल नहीं, मुझमें जां भी नहीं, साया नहीं, कोई साथी नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। सुबह नहीं, अब शाम नहीं सच नहीं ना कोई जूठ नई दिन भी वहीं रातें वहीं सांस वहीं, पर बातें नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। आगाज़ नहीं, अंज़ाम नहीं मैं शब्द नहीं कोई आवाज़ नहीं, किस्से नहीं, कहानी नहीं किरदार वही पर राज़ नहीं मैं कुछ नहीं मैं कोई नहीं। मैं गंगा नहीं, यमुना भी नहीं, पाप वही, अब पुण्य नहीं तीर्थ नहीं, कोई धाम नहीं पर्वत वही, पर हिमालय नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। दुश्मन नहीं पर दोस्त वही, मैं फिज़ा नहीं, रूत भी नहीं, अपना नहीं, ना गैर सही मंज़िल वही मैं रस्ता नहीं मैं कुछ नहीं मैं कोई नहीं। मैं पूरब नहीं पश्चिम नहीं सूरज वही, मैं दिशा नहीं मैं मिला नहीं, भटका भी नहीं आदमी वही कोई मुखौटा नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। Like our page on Facebook Follow us on Instagram