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आशा और अवधारणा के बीच का मन

 आंखें मूंद कर जब बैठते है

कुछ लकीरें सी तैरने लगती है

कभी ऊपर कभी नीचे 

कभी लहरों सी नाचने लगती है

कभी टिमटिमाती है,

कभी शांत हो जाती है।

हाथ की लकीरों की तरह नहीं है ये

निष्ठुर, निर्मम, धारा सी स्थिर

हर पल स्तब्ध करने वाली।

चंचल होती है ये लकीरें,

बिल्कुल मन की तरह।

मन,

जो ग्रसित होता है अवधारणाओं से,

जो बंधा होता है आशाओं से।

ये उन्हीं अवधारणाओं और आशाओं

के बीच कि लकीरें है,

जो उन्हें बांधे तो रखती है

मगर करीब नहीं आने देती

और इसी दायरे के बीच ये लकीरें 

नाचती, मचलती, इठलाती है।

ये दायरे कभी अथाह सागर जितने 

तो कभी सांस और प्राण जितने होते है।

मन भी इन्हीं दायरों के बीच

भटकता है, जिंदगी ढूंढता है

गम की छांव में सिमट जाता है

खुशियों का आंचल लिए दौड़ता है

थक कर उम्मीदों का आशियां बना

सो जाता है।

सपनों का पंख बनाता है,

उड़ना चाहता है

पर दायरों की जंजीर इसे बांधे रखती है।

मन फिर लकीरों को पकड़ता है

आजाद होना चाहता है

उनके सहारे ऊपर नीचे 

लहरों सा नाचता है।

जब सब शांत हो जाता है,

तो एक रौशनी सी नजर आती है,

वो किरण पकड़ लेता है,

अब मन आजाद है

शांत, बिना किसी शोर के

अब ना अवधारणा है ना आशा

ना निराशा लिए वो लकीरें

दायरों की जंजीर टूट चुकी है

अब चिंतन नहीं है, सिर्फ चित्त है

मन अब केवल मन है।

©

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