Skip to main content

पार्क, बेंच और सुकून के पल

एक पार्क में बैठे थे वो दोनों
सर्दियों का मौसम आ चुका था
हवा में थोड़ी गर्माहट थी मगर,
बेंच पर थोड़ा फासल था
दिल में थोड़ा कम था शायद
सामने सुकून की चंद घड़ी थी।
पीछे कुछ शोर गुल था,
पर उस शोर से कोसों दूर थे दोनों
एक शांति थी,
दोनों साथ बैठे जिसे तलाश रहे थे
दिल थोड़े फासले और कम कर रहे थे,
पर बेंच की दूरी उतनी ही थी
उस फासले में भी
दोनों एक दूसरे से बात किए जा रहे थे
लफ्ज़ नहीं थे मगर।
वो सुकून दोनों की बात सुन रहा था,
और दोनों को सुनने पर
मजबूर कर रहा था।
ऐसा नहीं था दोनों सुनना नहीं चाह रहे थे
मगर दोनों के पास कहने को
इतना कुछ बाकी था
की सुनने का वक्त नहीं था।
बीच बीच में आंखें मिलती थी
फिर हया के पर्दे बीच में गिर जाते थे
नज़रें फिर कुछ पल की
जुदाई मांग लेती थी।
फिर दोनों सामने,
सदियों की गवाही देता
एक पीपल के पेड़ को देखते है
शायद उसकी फैली हुई जड़ों की तरह
एक आशियां बनाना चाहते थे।
अभी तो कली खिली थी सिर्फ,
वक्त बहुत था दोनों के पास मगर,
चाहत की कलियों को सींचने का।
कुछ पत्ते गिरते है सूखे हुए,
उस सन्नाटे में
थोड़ी सिहरन बिखेर जाते है।
शाम होने को थी
सूरज क्षितिज पर खड़ा था,
दोनों के सुकून को तोड़ना नहीं चाहता था,
जाने की जल्दी थी
मगर रुकने का एक बहाना था
चाह रहा था आज सारी बातें
चुपचाप दोनों के बीच हो जाए
और बेंच के फासले कुछ कम हो जाए।
आसमान साफ था
शायद अगले दिन धुंध होने को थी
पर अब डर नहीं था दोनों को
उस धुंध में एक दूसरे से
बिछड़ जाने का, बिखर जाने का।
सूरज अब अलविदा कहना चाहता था,
उंगलियों ने धीरे इशारा किया
उसकी उंगलियों से,
हाथ अब साथ मे है
पीपल से एक जड़ टूटा था
उसने हाथों को कस कर जकड़ लिया
अब साथ काफी लंबा था
और किसी को खोने का डर नहीं था।
कदम मिट्टी से सुर मिला
सफर में साथ चल पड़े थे।
बेंच अब खाली था मगर
फासले बहुत कम कर दिए थे उसने।

©

Comments

Popular posts from this blog

परिकल्पना - सफ़र जिंदगी का

हम एक जीवन की कल्पना करते है फिर उस परिकल्पना में रंग भरते है कुछ छोटी कुछ बड़ी आशाएं, कुछ यादें, कुछ बातें, लम्हों कि सौगातें कुछ आकांक्षायें पहलू में समेट लेते है कुछ बस एक काश में ही सिमट जाते है कुछ जिरह, कुछ विरह, कुछ जद्दोजेहद सब मिल कर स्याह बनकर कोरे पन्नों पर कुछ लिखना चाहते है, किरदार सजते है, कुछ किस्से संवरते है कुछ दाग बनकर वहीं रह जाते है। हम खुशियां समेटते है सन्नाटे छाटते है चलते है, भागते है, हांफते है, थक कर दहलीज पर बैठ जाते है सांस लेने की कवायद करते है, लड़ते है एक उम्मीद लिए आसमां में तैरते है एक तिनका पकड़ते है चांद पर बैठ जाते है कभी बादलों से उलझकर गिर जाते है और सागर की गहराइयों में खो जाते है उस शून्य में रंग सारे सफेद हो जाते है पीछे बचती है एक लकीर काले स्याह रंग की, अंधकार समेटे जो जमीं को आसमां से जोड़ती है यादों की बारिश उस लकीर को सिंचती है कुछ टहनियों को जन्म देती है जो एक आखरी सफर को छाव देते है हम चलते जाते है, अकेले उस सफर पर और कल्पनाएं, जिनमें कुछ रंग भरे थे फूल बनकर बिखरते जाते है कांटे जो पावों में छुपे थे, चुभे थे

लंच बॉक्स

जब तुम टिफिन का डब्बा पैक करके मुझसे कहते हो घर जल्दी आना और फिर खुद ही वो टिफिन मेरे बैग के एक कोने में रख देती हो। भूल जाने की मेरी आदत पुरानी है, ये आदत भी तुम्हारी दी हुई है, भूलने के बाद तुम्हारी डांट खाना फिर तुम्हारे चेहरे पर वो फिक्र नजर आना नाराज़गी में छिपा तुम्हारा वो प्रेम मेरे मनाने पर तुम्हरा वो आंखें दिखाना मुझे भूल जाने पर मजबूर करती है। "सॉरी, कल से नहीं भूलूंगा" ये सुन कर तुम मुस्कुरा देती हो, तुम जानती हो कल फिर यही होगा कल मैं फिर कुछ भूलूंगा तुम फिर कल थोड़ा और प्यार शब्दों में कैद करके मुझपर आजाद कर दोगे। और ये सिलसिला यूंही दिन बा दिन चलता रहेगा उस दिन तक जब हम दोनों बैठे होंगे एक आराम कुर्सी पर जो हौले हौले ऊपर नीचे करेगी हमारी यादों की लहरों पर, और हम आंखें मूंदे देख रहे होंगे एक दूसरे को, लहरों पर नाचते हुए चलेंगे हाथ में हाथ थामे एक नए सफर पर दूसरे छोर तक। और वो टिफिन, किनारे पर फैली मखमली रेत पर पड़े एक संदूक के कोने में रखी होगी। इस इंतजार में कि फिर से कोई हम दोनों जैसा उस रेत पर एक आशियां बनाएगा, प्रेम का अंतरद्व

मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं

मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं आरज़ू नहीं, कोई आबरू नहीं चमक नहीं, मैं फलक भी नहीं, दिल नहीं, मुझमें जां भी नहीं, साया नहीं, कोई साथी नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। सुबह नहीं, अब शाम नहीं सच नहीं ना कोई जूठ नई दिन भी वहीं रातें वहीं सांस वहीं, पर बातें नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। आगाज़ नहीं, अंज़ाम नहीं मैं शब्द नहीं कोई आवाज़ नहीं, किस्से नहीं, कहानी नहीं किरदार वही पर राज़ नहीं मैं कुछ नहीं मैं कोई नहीं। मैं गंगा नहीं, यमुना भी नहीं, पाप वही, अब पुण्य नहीं तीर्थ नहीं, कोई धाम नहीं पर्वत वही, पर हिमालय नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। दुश्मन नहीं पर दोस्त वही, मैं फिज़ा नहीं, रूत भी नहीं, अपना नहीं, ना गैर सही मंज़िल वही मैं रस्ता नहीं मैं कुछ नहीं मैं कोई नहीं। मैं पूरब नहीं पश्चिम नहीं सूरज वही, मैं दिशा नहीं मैं मिला नहीं, भटका भी नहीं आदमी वही कोई मुखौटा नहीं मैं कुछ नहीं, मैं कोई नहीं। Like our page on Facebook Follow us on Instagram