सुनो, कुछ कहना है तुमसे
क्या, कैसे, कब, नहीं पता
मगर फिर भी कुछ कहना है तुमसे।
शब्द नहीं है, होंठ भी कुछ कांपते से है
मन भी आशंकित सा हुआ जाता है
बोलना बहुत कुछ है इसे मगर
कहने से डरता भी बहुत है।
शायद कुछ उलझा सा हुआ है
तुम्हें तुमसा देख कर ये मन,
शब्दों में अथाह सागर के बीच भी
अतृप्त, आवाक, विचलित रह जाता है
वो डूबना चाहता है, तैरना भी
पर वो सागर कदम पड़ते ही रेत हुआ जाता है
क्यों, कैसे कुछ मालूम नहीं।
फिर भी कुछ कहना है तुमसे,
मुझे झुमके बहुत पसंद है
बाज़ार से खरीदे थे, तुम्हारे लिए
जेब में रखे हुए है शायद
जो तुम्हें देने तो है लेकिन
कैसे, कब, मालूम नहीं, डरता हूं
तुमसे नहीं, अपने खुद के साए से।
पर फिर सोचता हूं
तुम कानों में उन्हें पहन कर
जब घर से बाहर निकलोगे और
कहीं मेरे सामने आ खड़े होगे
और धीरे से अपने बालों को
उंगलियों में लपेटकर कर
शरमाते हुए कानों के पीछे करोगे,
तब मैं वहीं स्तब्ध सा खड़ा होकर
तुम्हें देखता रहूंगा, धड़कने थोड़ी रुक जाएंगी
कुछ कहना चाहूंगा तुम्हें
मगर कुछ बोल नहीं पाऊंगा।
होंठ, जो पहले थोड़े कांपते से थे,
अब तुम्हारे दुपट्टे के रेशमी धागे से सिल जाएंगे।
तुम अगर खामोशी को समझ सको तो
मेरी आंखों में देखना, बस एक पल के लिए ही
तुम्हें एक परछाई नज़र आएगी
जो हूबहू तुम्हारी शक्ल लिए होगी,
तुम्हारी सी आंखें, काजल की चादर ओढ़े
तुम्हें वो सब बयां कर रही होगी
जो ख्वाबों में रोज़ तुम्हें सामने बिठा
तुम्हारी इसी परछाई से करता रहता हूं
बेखौफ, बेबाक, लफ्ज़ बा लफ्ज़।
की शायद सुन सको, जो कहना है तुमसे।
मेरी आंखों में पढ़ सको
वो किस्सा, जो खामोशी से गढ़ा है मैंने।
बीते कई बरस लगे है इन्हें
एक शक्ल देने में, इन्हें तुमसा बनाने में।
सुनो, अब सुन भी लो जो कहना है मुझे
मगर क्या, कैसे, मालूम नहीं।
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हम एक जीवन की कल्पना करते है फिर उस परिकल्पना में रंग भरते है कुछ छोटी कुछ बड़ी आशाएं, कुछ यादें, कुछ बातें, लम्हों कि सौगातें कुछ आकांक्षायें पहलू में समेट लेते है कुछ बस एक काश में ही सिमट जाते है कुछ जिरह, कुछ विरह, कुछ जद्दोजेहद सब मिल कर स्याह बनकर कोरे पन्नों पर कुछ लिखना चाहते है, किरदार सजते है, कुछ किस्से संवरते है कुछ दाग बनकर वहीं रह जाते है। हम खुशियां समेटते है सन्नाटे छाटते है चलते है, भागते है, हांफते है, थक कर दहलीज पर बैठ जाते है सांस लेने की कवायद करते है, लड़ते है एक उम्मीद लिए आसमां में तैरते है एक तिनका पकड़ते है चांद पर बैठ जाते है कभी बादलों से उलझकर गिर जाते है और सागर की गहराइयों में खो जाते है उस शून्य में रंग सारे सफेद हो जाते है पीछे बचती है एक लकीर काले स्याह रंग की, अंधकार समेटे जो जमीं को आसमां से जोड़ती है यादों की बारिश उस लकीर को सिंचती है कुछ टहनियों को जन्म देती है जो एक आखरी सफर को छाव देते है हम चलते जाते है, अकेले उस सफर पर और कल्पनाएं, जिनमें कुछ रंग भरे थे फूल बनकर बिखरते जाते है कांटे जो पावों में छुपे थे, चुभे थे
nice poem
ReplyDeletejisse jo kahna ho wo kah dena chahiye. baad mein pachhtane se achha hai abhi himmat karke bol dena.