जब चारदीवारी खड़ी हो रही थी तो उसके हिस्से ऊपर का एक कोना आया, कहा उसे चुपचाप पड़े रहना था। नीचे फैली विविधताओं से दूर, रंग बिरंगी दुनिया से दूर उसे वहीं रहना था। चाहे फर्श मिट्टी से लीपी हो या चमक बिखेरती संगमरमर बिछी हो उसे वहीं से सब देखना था। वह नीचे नहीं आ सकता था, नीचे आते ही उसका वजूद खत्म हो जाता, वह कुछ और बन जाता। नीचे होने से चारदीवारी के भीतर की दुनिया वो बाहर गुजरने वाले सबको दिखा देता। फिर अन्दर वाले उस दुत्कारते और उसपे फिर शीशे की एक परत चढ़ा दी जाती अन्दर की दुनिया छुपाने के लिए। पर वो रौशनदान है इसलिए वो ऊपर है और उसका एक कोने में चुपचाप पड़े रहना ही उसके वजूद को सार्थक करता है। रौशनदान और किरणों के बीच हमेशा से ही एक अनोखा संबंध रहा है। दोनों एक दूसरे के पूरक है। रौशनदान से छन कर आती हुई रौशनी केवल रौशनी नहीं होती है। वो बाहर रौशन करती किरणों से कहीं अलग कहीं दूर क्षितिज में कहीं छुपे हुए उस रौशनी के श्रोत के तेज की तरह उम्मीद के एक शीतल लौ की तरह है। एक अकेले भटकते हुए अंधरे कमरे के लिए रौशनदान भंवर के उस तिनके की तरह है जो हाथ आने पर प्राणों को निचोड़ने वाले उस
खामोशियां वो शब्द है जो दिल के दायरों में छुपे होते है, इनकी अपनी आवाज़ नहीं होती। इन खामोशियों को आवाज़ हमारे अल्फ़ाज़ देते है। वो अल्फ़ाज़ जो जुबां पे तो नहीं आ पाते लेकिन दिल की कलम से पन्नों पर कैद हो जाते है। हमारे एहसास, जज़्बात और जिंदगी के छोटे बड़े लम्हें इनमें रंग भरते है और रूह बनके छलकते है, बिना इनके अल्फ़ाज़ बस शब्द बनके रह जाते है। खामोशियां अपने अपने दायरों में जीने वाले दो फराख़ दिलों के अनकहे, अनसुने और उलझे ख्यालातों को अल्फाजों में पिरोने की एक कोशिश है।