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Showing posts from January, 2021

पार्क, बेंच और सुकून के पल

एक पार्क में बैठे थे वो दोनों सर्दियों का मौसम आ चुका था हवा में थोड़ी गर्माहट थी मगर, बेंच पर थोड़ा फासल था दिल में थोड़ा कम था शायद सामने सुकून की चंद घड़ी थी। पीछे कुछ शोर गुल था, पर उस शोर से कोसों दूर थे दोनों एक शांति थी, दोनों साथ बैठे जिसे तलाश रहे थे दिल थोड़े फासले और कम कर रहे थे, पर बेंच की दूरी उतनी ही थी उस फासले में भी दोनों एक दूसरे से बात किए जा रहे थे लफ्ज़ नहीं थे मगर। वो सुकून दोनों की बात सुन रहा था, और दोनों को सुनने पर मजबूर कर रहा था। ऐसा नहीं था दोनों सुनना नहीं चाह रहे थे मगर दोनों के पास कहने को इतना कुछ बाकी था की सुनने का वक्त नहीं था। बीच बीच में आंखें मिलती थी फिर हया के पर्दे बीच में गिर जाते थे नज़रें फिर कुछ पल की जुदाई मांग लेती थी। फिर दोनों सामने, सदियों की गवाही देता एक पीपल के पेड़ को देखते है शायद उसकी फैली हुई जड़ों की तरह एक आशियां बनाना चाहते थे। अभी तो कली खिली थी सिर्फ, वक्त बहुत था दोनों के पास मगर, चाहत की कलियों को सींचने का। कुछ पत्ते गिरते है सूखे हुए, उस सन्नाटे में थोड़ी सिहरन बिखेर जाते है। शाम हो

आशा और अवधारणा के बीच का मन

 आंखें मूंद कर जब बैठते है कुछ लकीरें सी तैरने लगती है कभी ऊपर कभी नीचे  कभी लहरों सी नाचने लगती है कभी टिमटिमाती है, कभी शांत हो जाती है। हाथ की लकीरों की तरह नहीं है ये निष्ठुर, निर्मम, धारा सी स्थिर हर पल स्तब्ध करने वाली। चंचल होती है ये लकीरें, बिल्कुल मन की तरह। मन, जो ग्रसित होता है अवधारणाओं से, जो बंधा होता है आशाओं से। ये उन्हीं अवधारणाओं और आशाओं के बीच कि लकीरें है, जो उन्हें बांधे तो रखती है मगर करीब नहीं आने देती और इसी दायरे के बीच ये लकीरें  नाचती, मचलती, इठलाती है। ये दायरे कभी अथाह सागर जितने  तो कभी सांस और प्राण जितने होते है। मन भी इन्हीं दायरों के बीच भटकता है, जिंदगी ढूंढता है गम की छांव में सिमट जाता है खुशियों का आंचल लिए दौड़ता है थक कर उम्मीदों का आशियां बना सो जाता है। सपनों का पंख बनाता है, उड़ना चाहता है पर दायरों की जंजीर इसे बांधे रखती है। मन फिर लकीरों को पकड़ता है आजाद होना चाहता है उनके सहारे ऊपर नीचे  लहरों सा नाचता है। जब सब शांत हो जाता है, तो एक रौशनी सी नजर आती है, वो किरण पकड़ लेता है, अब मन आजाद है शांत, बिना किसी शोर के अब ना अवधारणा है ना आशा

रात के सन्नाटे

सन्नाटे, लगते शांत है मगर चीखते बहुत है रात के सन्नाटे, सबसे ज्यादा आवाज़ करतें है सुनाई बिल्कुल नहीं देते पर कह इतना कुछ जाते है कि सुनने वाला एक रात में दो चार सदी की जिंदगी उधार मांग कर ले आता है। समुंदर में गोता लगा कर कभी मोती तो कभी कुछ गड़े मुर्दे निकाल लेता है मुर्दे, जिनका इस घड़ी कांटे से कोई मोल भाव नहीं है मगर फिर भी वो मिलों दूर फैली उस रेतेली सतह को जाने कैसे उथला कर देते है फिर पहुंच जाते है सतह पर तैरने लगते है अपना हाथ उठाते है पास बुलाते है सन्नाटे के साए में हम चुपके से एक अंगुली पकड़ लेते है फिर वो मुस्कुराते है और उस समंदर के उथले पानी में पहले एक लहर, फिर दूसरी फिर अलगे पल एक भंवर हम डूबते जाते है सन्नाटे के संग चीखते है जोर जोर से चिल्लाते है मगर वो सन्नाटे है सुनाई नहीं देते, रेतैली जमीन खींचती जाती है हम डूबते जाते है बूंदें कुछ साथ चलती है जो समुंदर के उस खारे पानी में कुछ और नमक घोलती जाती है अब सांस नहीं आती है वो तो सतह पर ही साथ छोर गई थी अब बूंद भी साथ नहीं है सब शांत हो चुका है एक और रात आदमी की शक्ल लिए उसी रेत