एक पार्क में बैठे थे वो दोनों सर्दियों का मौसम आ चुका था हवा में थोड़ी गर्माहट थी मगर, बेंच पर थोड़ा फासल था दिल में थोड़ा कम था शायद सामने सुकून की चंद घड़ी थी। पीछे कुछ शोर गुल था, पर उस शोर से कोसों दूर थे दोनों एक शांति थी, दोनों साथ बैठे जिसे तलाश रहे थे दिल थोड़े फासले और कम कर रहे थे, पर बेंच की दूरी उतनी ही थी उस फासले में भी दोनों एक दूसरे से बात किए जा रहे थे लफ्ज़ नहीं थे मगर। वो सुकून दोनों की बात सुन रहा था, और दोनों को सुनने पर मजबूर कर रहा था। ऐसा नहीं था दोनों सुनना नहीं चाह रहे थे मगर दोनों के पास कहने को इतना कुछ बाकी था की सुनने का वक्त नहीं था। बीच बीच में आंखें मिलती थी फिर हया के पर्दे बीच में गिर जाते थे नज़रें फिर कुछ पल की जुदाई मांग लेती थी। फिर दोनों सामने, सदियों की गवाही देता एक पीपल के पेड़ को देखते है शायद उसकी फैली हुई जड़ों की तरह एक आशियां बनाना चाहते थे। अभी तो कली खिली थी सिर्फ, वक्त बहुत था दोनों के पास मगर, चाहत की कलियों को सींचने का। कुछ पत्ते गिरते है सूखे हुए, उस सन्नाटे में थोड़ी सिहरन बिखेर जाते है। शाम हो
खामोशियां वो शब्द है जो दिल के दायरों में छुपे होते है, इनकी अपनी आवाज़ नहीं होती। इन खामोशियों को आवाज़ हमारे अल्फ़ाज़ देते है। वो अल्फ़ाज़ जो जुबां पे तो नहीं आ पाते लेकिन दिल की कलम से पन्नों पर कैद हो जाते है। हमारे एहसास, जज़्बात और जिंदगी के छोटे बड़े लम्हें इनमें रंग भरते है और रूह बनके छलकते है, बिना इनके अल्फ़ाज़ बस शब्द बनके रह जाते है। खामोशियां अपने अपने दायरों में जीने वाले दो फराख़ दिलों के अनकहे, अनसुने और उलझे ख्यालातों को अल्फाजों में पिरोने की एक कोशिश है।