"तुम इस नगर के राजा हो, ये प्रजा तुम्हारी है, तुम्हारे नगर में क्या कुछ हो रहा है इसकी पूर्ण जानकारी तुम्हें होनी चाहिए, राजा को अपने नगर में होने वाली हर गतिविधि पर नज़रें गड़ा कर रखनी चाहिए।" यह सुनते ही मैं खुशी से उछल पड़ा, अरे हां मैं तो राजा हूं, ये मेरी ही तो प्रजा है, ये नगर भी मेरा है, यहां होने वाली हर घटना मेरी नज़रों के समक्ष होनी चाहिए। क्या खूब कही, मुझमें भी शक्तियां है, मैं भी आदेश से सकता हूं, मेरे हर आदेश का पालन करना प्रजा के लिए अनिवार्य है। मैं बुरा बिल्कुल भी नहीं हूं तो कोई ग़लत आदेश या बिना वजह प्रजा को परेशान करना मेरा लक्ष्य नहीं है, मैं तो हर कार्य में अपनी और सबकी भलाई देखता हूं। लेकिन फिर भी राजा होने का आभास अपने आप में अनोखा है। मैं खुद को बहुत ताकतवर समझने लगा था, खुद को सबसे ऊपर देख पा रहा था। ये उल्लास के क्षण थे और मैं इसी उल्लास के आवेश में कुर्सी पर विराजमान हो गया। तभी एक आवाज़ ने मुझे उस क्षणिक आवेश से बाहर निकाला। "अच्छा तो राजा जी थोड़ा बाहर निकल के देखें और पता करें की ये व्यक्ति कहा गायब हो गया है। अभी तो यहीं पर था लेकिन अ
खामोशियां वो शब्द है जो दिल के दायरों में छुपे होते है, इनकी अपनी आवाज़ नहीं होती। इन खामोशियों को आवाज़ हमारे अल्फ़ाज़ देते है। वो अल्फ़ाज़ जो जुबां पे तो नहीं आ पाते लेकिन दिल की कलम से पन्नों पर कैद हो जाते है। हमारे एहसास, जज़्बात और जिंदगी के छोटे बड़े लम्हें इनमें रंग भरते है और रूह बनके छलकते है, बिना इनके अल्फ़ाज़ बस शब्द बनके रह जाते है। खामोशियां अपने अपने दायरों में जीने वाले दो फराख़ दिलों के अनकहे, अनसुने और उलझे ख्यालातों को अल्फाजों में पिरोने की एक कोशिश है।