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Showing posts from April, 2020

राजा, प्रजा और किस्सा कुर्सी का

"तुम इस नगर के राजा हो, ये प्रजा तुम्हारी है, तुम्हारे नगर में क्या कुछ हो रहा है इसकी पूर्ण जानकारी तुम्हें होनी चाहिए, राजा को अपने नगर में होने वाली हर गतिविधि पर नज़रें गड़ा कर रखनी चाहिए।" यह सुनते ही मैं खुशी से उछल पड़ा, अरे हां मैं तो राजा हूं, ये मेरी ही तो प्रजा है, ये नगर भी मेरा है, यहां होने वाली हर घटना मेरी नज़रों के समक्ष होनी चाहिए। क्या खूब कही, मुझमें भी शक्तियां है, मैं भी आदेश से सकता हूं, मेरे हर आदेश का पालन करना प्रजा के लिए अनिवार्य है। मैं बुरा बिल्कुल भी नहीं हूं तो कोई ग़लत आदेश या बिना वजह प्रजा को परेशान करना मेरा लक्ष्य नहीं है, मैं तो हर कार्य में अपनी और सबकी भलाई देखता हूं। लेकिन फिर भी राजा होने का आभास अपने आप में अनोखा है। मैं खुद को बहुत ताकतवर समझने लगा था, खुद को सबसे ऊपर देख पा रहा था। ये उल्लास के क्षण थे और मैं इसी उल्लास के आवेश में कुर्सी पर विराजमान हो गया। तभी एक आवाज़ ने मुझे उस क्षणिक आवेश से बाहर निकाला। "अच्छा तो राजा जी थोड़ा बाहर निकल के देखें और पता करें की ये व्यक्ति कहा गायब हो गया है। अभी तो यहीं पर था लेकिन अ

अतीत के पन्नों से

अतीत के पन्नों से निकल आज शायद तुम मुझे जगाने आए हो, नहीं, शायद झकझोरने आए हो, की मैं कहीं जेठ की दुपहरी सा सुनसान, सुन्न, शून्य सा सन्नाटे में खोया हुआ था, सोया हुआ था। नहीं, पर अब मैं तो मैं था ही नहीं शायद उसी दिन से जब तुम ख्वाबों में भी मेरे लिखे खतों का जवाब अपनी खामोशी से लिखने लगे थे वो खामोशी जो आज भी तुम्हारे नाम के ज़िक्र के साथ जिंदा होकर मेरे पास आती है और मुझे एक सन्नाटे में खींच ले जाती है। उस शून्य में जब मैं अपनी परछाई को तराशता हूं तो एक चेहरा उभर आता है जिसे ना तो तुम जान पाए ना कभी मैं पहचान पाया, चेहरा, जो आसमां में फैले अनगिनत सितारों की तरह अपनी चमक का एहसास तो दिलाता रहा मगर अमावस के चांद की रौशनी की तरह उसकी मौजूदगी का कभी अंदेशा तक नहीं हुआ। कभी कभी उस सन्नाटे में, एक तूफान भी उबासी लेता हुआ नींद से जाग जाता है, फिर यादों की नर्म हरी दूब पर सिर्फ तिनकों का एक ढेर बाकी रहता है। अबकी जब सिर्फ उस यादों के सुलगते, तड़पते ढेर में धुएं का एक गुबार बाकी सा है तो जहन में तुम्हारी उधार दी हुई तन्हा, तपिश से तर हुई चंद सांस लिए म