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A Conversation - गुफ्तगू

चलो आज कुछ बात करते है,
दरिचों के किनारे बैठ शाम गुलज़ार करते है
तुम्हारे कुछ सवाल मेरे कुछ जवाब,
और कुछ कही अनकही बात
सवालों से तुम परेशां करो
मैं जवाबों से उन्हें नाम देता हूं
खैर इस लायक तो नहीं मैं अभी
कि तुम्हारे हर घाव भर सकूं
पर कुछ तजुर्बे है जिंदगी के
मरहम उसी से इख़्तियार करते है
ढलती मचलती शाम का दामन थाम
चलो फिर वही बात करते है।

मैं ही क्यों, क्यूं मेरा दिल टूटा है
क्यूं मुझसे कोई रूठा है?
अपने कभी रूठा नहीं करते
और दिल कभी तोड़ा नहीं करते
वो तो पराया था कल आया था
आज चला गया, उसे जाना ही था,
जाने दो उसे, क्या पता अगर
कुछ पल और रुक जाता तो
कल हर रोज़ दो दिल टूटते
और हर रोज़ तुम अपने आप से रूठते।

जब जाना ही था तो आया ही क्यों?
ना वो आता मेरे जीवन में
ना जाने का कोई तंज होता।
बात ये भी सही है मानता हूं
पर वो आया उसकी फितरत थी
वो गया ये तुम्हारी किस्मत थी
दिल लगाया तुमने ये तुम्हारी चाहत थी
तोड़ा उसने ये उसकी आदत थी
जिसकी फितरत ही किताबों में कैद
बंद फूलों जैसी हो, सिमटी, मुरझाई
वो महफ़िल में कभी खुशबू बांटा नहीं करते
ऐसे लोगों के लिए दिल में
रंज-ओ-गम सजाया नहीं करते।

फिर भी आंखों में आंसुं क्यों है
गलत था वो तो यादें सताती क्यों है
क्यों मैं बेजान सी महसूस करती हूं
वक़्त बेवक्त परेशान रहती हूं?
आंसू आना यूं तो बुरी बात नहीं है
मैं भी चुपचाप कभी कभी अकेले में रो लेता हूं
पर कीमत अपने आंसुओं कि पहचानो
कांटों के लिए क्यूं रोते हो
फूलों के लिए तुम जीना सीखो।
और इन यादों का तो काम है सताना
कभी गम तो कभी चेहरे पे खुशी लाना
लेकिन राब्ता इतना ही रखो यादों से
की बस वो दिल को छुए
और चुपके से निकल जाए।
और फिर
जिसकी हसी में इतनी ताकत हो
कि उसे देख मेहफिलें झूम उठती हो
वो कभी बेजान नहीं होते
वो तो बाद-ए-सबा की तरह
हर दिल में जान भरते है।

मेरी हसी तो खो गई है।
कभी खुद को आईने में देखा है
मुस्कुराते हुए? देखना कभी
यहीं तो है हसी, तुम्हारे चेहरे की रौनकें सजाते हुए।

पर फिर भी क्यों मेरे साथ
कुछ अच्छा नहीं हो रहा?
क्यों दर्द से मेरे नाता नहीं छूट रहा?
ये कोई सोचने की बात नहीं
अच्छा बुरा क्यूंकि हमारे बस में नहीं
वक़्त लगेगा थोड़ा लेकिन
सहर भी बदलेगा और शामे भी
रात भी नई और हर पहर भी बदलेगा
कुछ पल यूं अपने भी नाम करो
कदम दर कदम मकां अपने बढ़ाओ
थोड़ी जुरअतें दिल में मुख्तसर करते जाओ
जो हासिल करना है उसके लिए
दिल को मनाओ, थोड़ा फुसलाओ
फिर देखो तुम क्या कमाल करते हो
हर जीत को बेमिसाल करते हो।

डर लगता है हार ना जाऊं।
पहले जीतने की कोशिश तो करो

डरती हूं सपनों से, एक बार टूट चुके
अब फिर से देखने की हिम्मत नहीं।
वो सपने ही कहां थे, वो तो बस महल थे
शीशों के, आज नहीं तो कल टूटने ही थे
जो रातों को ख्यालों मे तुमने सजाए थे।
सपने के घरौंदे तो ईंट पत्थरों से बनते है
देखने में बेशक वो महल ना लगे
पर हर एक ईंट आरजूओं से सजते है
परत दर परत उनमें रंग ढलते है
और किसी के ठोकर मारने से
वो घरौंदे कभी गिरते नहीं।
यूं ही जागती आंखों से तुम भी
अपने सपने को सजाओ
की कोई तोड़ने वाला भी
उसकी चोट से बेआबरू हो जाए।

पर फिर भी कुछ अंदर से टूट रही हूं
सब्र है फिर भी बेसब्र हो रही हूं
क्यूं भीड़ में भी तन्हा हो रहीं हूं?
खैर जो टूट गया उसे जुड़ने में
कुछ शामें तो लगेंगी ही
पर जब सहर आएगी
तो संग अपने नई किरणे लायेगी
फिर ओस की बूंदों की तरह
तुम भी फरोजां हो जाओगे
क्यूंकि हीरे को हर चोट से
तराशा ही जा सकता है
उसे तोड़ना करना मुमकिन नहीं
और ये जो तन्हाईया है ना
उस अपनी एक रात दे दो
चंद अल्फ़ाज़ उसके भी नाम कर दो
फिर वो भी तुम्हारे साथ गुनगुनाएगी
और उन अकेली रातों की
एक तदबीर बन जाएगी।

इतना भी आसान नहीं है सब।
नामुमकिन भी तो नहीं है कुछ
इस बज़्म-ए-हयात में।

चलो अब बातें बहुत हुई
कुछ देर चुपचाप बैठते है
खामोशियां को अब कुछ देर
आपस में बात करने देते है
ये जो वक़्त के सन्नाटे है
सजर में इन्हें बैठ थोड़ी देर
अपने गीत लिखने देते है
सोचने समझने के लिए
काफी जिंदगी मयस्सर है
कुछ देर दरिचों के किनारे बैठ
बेनाम ख्वाहिशों को जीने देते है
सहर के इंतज़ार में कहीं
ये शाम भी ना बीत जाए
लम्हों का दामन थामे
इज्तिराबों को ठहरने देते है
सवाल भी ना हो जहां
और कोई जवाब भी नहीं
ऐसी भी कुछ बात होने देते है
साहिल के किनारे से
वक़्त की रेत मुठ्ठी में लिए
लिए अपनी कहानियां आंखों में
दिलों को कुछ देर और बात करने देते है।


रात के पहलू से निकल,
देखो अब सहर आ गई
चाय की चुस्कियों के साथ,
चलो कुछ लम्हें बाटतें है
कल दरिचें गुलज़ार थे,
आज उस सूने पड़े गुलिस्तां को
अपनी बातों से हरा करतें है,
धूप की मधम किरणों के बीच
चलो फिर थोड़ी बात करते है

बात आज तुम्हारी हसी की करते है।
क्या खास है ऐसा
या तुम मुझे पागल समझते हो?
तुम्हारी जो ये हसी है ना
तुम्हें तुमसा बनाती है
तुम्हें औरों से अलग सजाती है
ये हसी ओस की बूंद की तरह है
जिसकी चमक हर सुबह को
चांदनी सा रौशन करती है
ये हसी गुलाब की तरह है
उसकी कोमल पंखुड़ियों सी
कुछ सिमटी कुछ सकुचाई
कांटों के बीच भी
चेहरे पे खिलती रहती है।
ये हसी एक इबादत की तरह है
जो उम्मीद की रोशनी होठों पर सजाए
और चिरागों के दामन से आग लिए
जिंदगियों को आबाद करती है
ये हसी बहुत खास है
इश्क़ सा कुछ बेपरवाह है
कभी संजीदा तो कभी लापरवाह है
गुलों सी इसमें अदा भी है
कांटों का रंज-ओ-गम भी है
कुछ अलग अंदाज़ है इसमें
की आईना भी देख तुम्हें अपने दायरे में
एक ही फलसफा कहेगा
जो चेहरे पर चमकता ये नूर है
बेबाक अल्ह़र सा जो हूर है
चमक सबकी दिल में छुपी 
इस हसी से ही बादस्तुर है।

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