तुम्हें शायद मेरी अब जरूरत नहीं,
या शायद हो भी, किसे पता
तुमसे बेहतर तो ये कोई नहीं जान सकता
फिर भी तुम्हारी ख़ामोशी ना चाहते हुए भी कुछ कह सी जाती है।
तुम अपने आप में खोए रहते हो
मैं भी चुपचाप तुम्हें देखता रहता हूं
कोशिश करता हूं कि तुम्हारी ख़ामोशी को
थोड़ा जान सकूं, पढ़ सकूं, समझ सकूं
पर तुम्हें देख कर ठहर सा जाता हूं
सोचता हूं शायद तुम कुछ कहोगे, पर कुछ आवाज़ सी आती नहीं
फिर लगता है तुम्हारा हाल ही पूछ लूं
इसी बहाने कुछ बात तो होगी, शायद तुम्हारी ख़ामोशी भी समझ जाऊंगा
इसी बहाने थोड़ी जान पहचान भी बढ़ जाएगी
तुम मुझको समझ पाओगे मैं भी शायद तुमको जान पाऊंगा
पर तुम्हारे साथ ये ख़ामोशी भी आ जाती है, दीवार की तरह
फिर लगता है शायद तुम्हें जरूरत नहीं किसी की
या हो भी सकता है, ये मैं नहीं कह सकता
सारा दिन इसी उधेड़बुन में निकल जाता है
और बात वहीं आधी अधूरी सी रह जाती है
मुझे तुम्हारे कुछ कहने का इंतजार रहता है
शायद तुम्हें भी रहता होगा,
पर कौन जाने
ये शायद भी बहुत अजीब चीज़ है
इसके चक्कर में जाने कितने बिछड़ जाते है
और कितने बिखर जाते है
पर ये शायद वही पड़ा रहता है, ख़ामोशी का सहारा लिए
इतनी लहरें तो समंदर में भी नहीं आती होंगी
जितना ये एक शायद मन में उफान लाता है
पर फिर भी मुझे लगता है
शायद अब तुम्हें मेरी जरूरत नहीं
पर शायद मुझे तुम्हारी जरूरत है या शायद नहीं
अब तो में ये भी नहीं जानता ।
खैर जाने दो छोरो इन बातों को, क्या ही रखा हुआ है इनमें
पर शायद कभी जरूरत पड़ी तुम्हें तो यही मिलूंगा,
उसी नुक्कड़ पर
जहां चाय की चुस्कियों के साथ तुम्हारे इंतज़ार में
शाम से रात हो जाती थी, उसी मोड़ पर मिलूंगा
एक बस तुम्हारी ख़ामोशी का सहारा लिए ।
या शायद हो भी, किसे पता
तुमसे बेहतर तो ये कोई नहीं जान सकता
फिर भी तुम्हारी ख़ामोशी ना चाहते हुए भी कुछ कह सी जाती है।
तुम अपने आप में खोए रहते हो
मैं भी चुपचाप तुम्हें देखता रहता हूं
कोशिश करता हूं कि तुम्हारी ख़ामोशी को
थोड़ा जान सकूं, पढ़ सकूं, समझ सकूं
पर तुम्हें देख कर ठहर सा जाता हूं
सोचता हूं शायद तुम कुछ कहोगे, पर कुछ आवाज़ सी आती नहीं
फिर लगता है तुम्हारा हाल ही पूछ लूं
इसी बहाने कुछ बात तो होगी, शायद तुम्हारी ख़ामोशी भी समझ जाऊंगा
इसी बहाने थोड़ी जान पहचान भी बढ़ जाएगी
तुम मुझको समझ पाओगे मैं भी शायद तुमको जान पाऊंगा
पर तुम्हारे साथ ये ख़ामोशी भी आ जाती है, दीवार की तरह
फिर लगता है शायद तुम्हें जरूरत नहीं किसी की
या हो भी सकता है, ये मैं नहीं कह सकता
सारा दिन इसी उधेड़बुन में निकल जाता है
और बात वहीं आधी अधूरी सी रह जाती है
मुझे तुम्हारे कुछ कहने का इंतजार रहता है
शायद तुम्हें भी रहता होगा,
पर कौन जाने
ये शायद भी बहुत अजीब चीज़ है
इसके चक्कर में जाने कितने बिछड़ जाते है
और कितने बिखर जाते है
पर ये शायद वही पड़ा रहता है, ख़ामोशी का सहारा लिए
इतनी लहरें तो समंदर में भी नहीं आती होंगी
जितना ये एक शायद मन में उफान लाता है
पर फिर भी मुझे लगता है
शायद अब तुम्हें मेरी जरूरत नहीं
पर शायद मुझे तुम्हारी जरूरत है या शायद नहीं
अब तो में ये भी नहीं जानता ।
खैर जाने दो छोरो इन बातों को, क्या ही रखा हुआ है इनमें
पर शायद कभी जरूरत पड़ी तुम्हें तो यही मिलूंगा,
उसी नुक्कड़ पर
जहां चाय की चुस्कियों के साथ तुम्हारे इंतज़ार में
शाम से रात हो जाती थी, उसी मोड़ पर मिलूंगा
एक बस तुम्हारी ख़ामोशी का सहारा लिए ।
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